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उ॒षो न जा॒रः पृ॒थु पाजो॑ अश्रे॒द्दवि॑द्युत॒द्दीद्य॒च्छोशु॑चानः। वृषा॒ हरिः॒ शुचि॒रा भा॑ति भा॒सा धियो॑ हिन्वा॒न उ॑श॒तीर॑जीगः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uṣo na jāraḥ pṛthu pājo aśred davidyutad dīdyac chośucānaḥ | vṛṣā hariḥ śucir ā bhāti bhāsā dhiyo hinvāna uśatīr ajīgaḥ ||

पद पाठ

उ॒षः। न। जा॒रः। पृ॒थु। पाजः॑। अ॒श्रे॒त्। दवि॑द्युतत्। दीद्य॑त्। शोशु॑चानः। वृषा॑। हरिः॑। शुचिः॑। आ। भा॒ति॒। भा॒सा। धियः॑। हि॒न्वा॒नः। उ॒श॒तीः। अ॒जी॒ग॒रिति॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:10» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले दशवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अब विद्वान् किसके तुल्य क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् जैसे (जारः) जीर्ण करनेहारे के (न) तुल्य (शोशुचानः) शुद्ध संशोधक (वृषा) वृष्टिकर्त्ता (हरिः) हरणशील (उशतीः) कामना किये जाते (धियः) कर्मों वा बुद्धियों को (हिन्वानः) बढ़ाता हुआ अग्नि (अजीगः) जगाता है (भासा) दीप्ति से सब को (आ, भाति) प्रकाशित करता है (पृथु) विस्तृत (पाजः) अन्नादि का (अश्रेत्) आश्रय करता है, सब को (दविद्युतत्) प्रकट करता है (उषः) प्रभातवेला के तुल्य (शुचिः) पवित्र स्वयं (दीद्यत्) प्रकाशित होता है, वैसे आप कीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे उत्तम शिक्षा को प्राप्त विद्वान् यथावत् कार्य्यों को सिद्ध करते, वैसे ही विद्युत् आदि पदार्थ सम्प्रयोग में लाये हुए सब व्यवहारों को सिद्ध करते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वान् किंवत्किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथा जारो न शोशुचानो वृषा हरिरुशतीर्धियो हिन्वानोऽग्निरजीगो भासा सर्वमा भाति पृथु पाजोऽश्रेत् सर्वं दविद्युतदुषइव शुचिः स्वयं दीद्यत्तथा त्वं विधेहि ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उषः) प्रभातवेला (न) इव (जारः) जरयिता (पृथु) विस्तीर्णम् (पाजः) अन्नादिकम् (अश्रेत्) श्रयति (दविद्युतत्) विद्योतयति (दीद्यत्) दीप्यते (शोशुचानः) शुद्धः संशोधकः (वृषा) वृष्टिकर्त्ता (हरिः) हरणशीलः (शुचिः) पवित्रः (आ भाति) प्रकाशयते (भासा) दीप्त्या (धियः) कर्माणि प्रज्ञाश्च (हिन्वानः) वर्धयन् (उशतीः) काम्यमानाः (अजीगः) जागारयति ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सुशिक्षिता विद्वांसः कार्याणि यथावत्साध्नुवन्ति तथैव विद्युदादयः पदार्थाः सम्प्रयुक्ताः सन्तः सर्वान् व्यवहारान् सम्पादयन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी, विद्वान व विदुषीच्या कर्तव्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे सुशिक्षित विद्वान यथायोग्य कार्य करतात तसेच विद्युत इत्यादी पदार्थांचा प्रयोग केल्यास सर्व व्यवहार पूर्ण होतात. ॥ १ ॥